बिश्नोई समाज में सांड प्रथा का सच | क्या वाकई होती थी सांड प्रथा
बिश्नोई समाज में नस्ल सुधार के लिए सांड प्रथा होती थी? Bishnoi samaj questions on Quora ?
आपको पता हो के बिश्नोई समाज की स्थापना मात्र 500 वर्ष पूर्व ही हुई है। इससे पूर्व बिश्नोई समाज को अपनाने वाले लोग जाट, राजपूत व अन्य जाति/सम्प्रदायों से संबंध रखते थे। अगर सांड प्रथा बिश्नोई समाज में रही है तो निश्चित ही यह प्रथा बिश्नोई समाज के अस्तित्व में आने से पूर्व जाटों व राजपूतों में अवश्य रही होगी। अन्यथा ऐसे क्या कारण रहे होंगे जिससे कुछ लोगों की धार्मिक आस्था बदलने के साथ अचानक सांस्कृतिक परिवेश में सांड प्रथा जैसी कुप्रथा कैसे पनप सकती है।
गोकि मध्य सदी में मुस्लिम आक्रांताओं का बोलबाला था हिंदू धर्म के लोगों को जबरन मुस्लिम बनाया जा रहा था। वही मध्य सदी मैं ही मरुधरा के महान संत गुरु जांभोजी ने बिश्नोई पंथ की नींव रखी। बिश्नोई पंथ को अपनाने वाले लोग विद्रोही प्रवृत्ति के थे जिन पर मुस्लिम आक्रांता का कोई प्रभाव नहीं रहा। चुंकि उस वक्त मन और तन से सुदृढ़ लोग ही बिश्नोई समाज को अपनाने का सामर्थ्य जुटा पाए थे। तो जाहिर सी बात है बिश्नोई जेनेटिक सुदृढ़ता के चलते शारीरिक व मानसिक रूप से मजबूत होने के कारण दूसरे लोग ईर्ष्यावस एनकेन प्रकारेण बिश्नोईयों को नीचा के उद्देश्य से नित नई कहानियां गढ़ने लगे। इन कुटिल कहानियों में से एक है सांड प्रथा! जो बिना सर पैर की कोरी मिथक अफवाह मात्र है।
विभिन्न धर्म समुदाय के लोगों के आस पास सैकड़ों वर्षो से बिश्नोई समाज के लोग रह रहे हैं क्या वो खुलेआम ऐसा कह सकते हैं कि फलां पड़ोसी के घर में यह प्रथा रही है। वहीं कुछ लालची लोगों ने भी आर्थिक लालच आकर पश्चिमी राजस्थान में आने वाले ट्रैवलर ब्लॉगर/लेखक आदि से इस मिथक प्रथा को साझा किया। कॉन्ट्रोवर्सी क्रिएट कर चर्चा में आने के लिए ब्लॉगरों व लेखकों ने इसे तूल दिया जबकि इस प्रथा पर लिखने के कारण जाने-माने लेखक खुशवंत सिंह नेे जयपुर में बिश्नोई समाज से माफी मांग चुके हैं।
क्यों सांड प्रथा का मिथक फैला कर तोड़ना चाहते थे बिश्नोई समाज
सांड प्रथा का दूसरा पहलू यह भी है कि बिश्नोई रंग-रूप, तन और मन सुदृढ़ है। वहीं 98% बिश्नोई, जाट समाज से बने हैं और 4 गौत्र की परम्परा आज भी है। इस कारण उस समय जो जाट विश्नोई बने अपने ही लोगों से जलते थे वह ऐसी अफवाह फैलाते थे ताकि बिश्नोईयों में आपसी फुट डाली जा सके और विश्नोई बने लोग पुनः जाट बन जाए।
सांड प्रथा के संदर्भ में कुछ लोगों का कहना है कि बिश्नोई समाज के 29 नियम में से एक
बेल बधिया न करना
है अर्थात् गाय के बछड़े को किसी भी प्रकार से कृषि व बैलगाड़ी में प्रयुक्त करने के लिए खस्सी नपुंसक नहीं बनाएं। जबकि अन्य समाज के लोग वेलकम नपुंसक को बनाते हैं ताकि उसको खेत जोतने व बैलगाड़ी चलाने में काम ले सके। बिश्नोई उस समय बेल को नपुंसक ना बनाकर सांड बनाते थे इसलिए यह कहावत समाज पर जोड़ दिया।
चुंकि बिश्नोई लोग रूप-रंग, कद-काठी व शारीरिक और मानसिक रूप से सुदृढ़ होते हैं तो अच्छी नस्ल की संतान प्राप्ति के लिए किसी और समाज की स्त्री बिश्नोई से संतान के लिए सहवास करें यह बात तो समझ में आती है। हमारे गुण-धर्म ही ऐसा है कि हमसे विश्व सीख सकता है, प्रेरित हो सकता है। लेकिन कुछ बुद्धीहीन अगर ये बकवास करते हैतो उन्हें इतना तो समझ लेना चाहिए कि कभी सोना (बिश्नोई-स्त्री) भी अन्य गुणों की खोज में जंग लगे लोहे से प्रेरित होगा भला? यह मिथक प्रथा का बवंडर उन्हीं निर्लज्ज लोगो द्वारा उड़ाया गया है जिन्होंने सदियों तक अपनी बीवियां मुगलों को अय्याशी के लिए परोसी है।
निष्कर्ष तो हम कह सकते हैं बिश्नोई समाज के संदर्भ में फैलाई गई नस्ल सुधार के नाम पर सांड प्रथा कोरी मृतक मिथक है यह है घृणा और नफरत फैलाने का कुकृत्य मात्र है।
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